असीरगढ़ का किला
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भोर होने का सुंदर लेकिन रहस्यमयी नजारा...
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सुनसान किले में रात का मंजर बेहद डरावना होता है...
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यहाँ एक मजार भी है, लेकिन अब यहाँ कोई नहीं आता...
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किले का तालाब भी अपने अंदर कई राज समेटे हुए है...
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किले की खंडहर दिवारें, जिनकी सुध लेने वाला कोई नहीं...
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असीरगढ़ का किला
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अब भी किले की हिफाजत करता है यह मजबूत दरवाजा...
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हिन्दू धर्म ग्रंथों में अनेक ऐसे दिव्य ऋषियों, देवताओं और पुरुषों के बारे में लिखा गया है, जो अमर हैं। इनकी मौजूदगी प्रत्यक्ष तो नहीं दिखाई देती। लेकिन ऐसे अनेक स्थान, मंदिर या ईमारतें है, जो इनकी अमरता का एहसास कराते हैं। इन दिव्य आत्माओं में एक है- महाभारतकालीन पात्र अश्वत्थामा, जो गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र थे।
चिरंजीव अश्वत्थामा की उपस्थिति का प्रमाण मिलता है - भारत में मध्यप्रदेश के बुरहानपुर के समीप स्थित असीरगढ़ के किले में। सतपुड़ा पर्वत की गोद और प्राकृतिक सौंदर्य के बीच स्थित है असीरगढ़ का किला। इस क्षेत्र में ताप्ती और नर्मदा नदी का संगम भी है। यह प्राचीन समय में दक्षिण भारत जाने के द्वार के रुप में भी प्रसिद्ध था। लोक मान्यता है कि इस किले के गुप्तेश्वर महादेव मंदिर में अश्वत्थामा रोज शिव की उपासना और पूजा करते हैं। इसके सबूत के रुप में मंदिर में सुबह गुलाब के फूल और कुमकूम दिखाई देते है। माना जाता है कि अश्वत्थामा मंदिर के पास ही स्थित तालाब में स्नान करते हैं। उसके बाद शिव की आराधना करते हैं।
यह मंदिर बहुत पुराना है। किंतु यहां पर पहुंचने पर विशेष अध्यात्मिक अनुभव होता है। यहां तक पहुंचने के लिए रास्ता दुर्गम है। मंदिर चारों ओर खाई से घिरा है। जिसमें माना जाता है इस खाई में बने गुप्त रास्ते से ही अश्वत्थामा मंदिर में आते-जाते हैं। मंदिर तक पहुंचने के लिए पैदल चढ़ाई करनी होती है। इस मंदिर को लेकर लोक जीवन में एक भय भी फैला है कि अगर कोई अश्वत्थामा को देख लेता है, तो उसकी मानसिक स्थिति बिगड़ जाती है। किंतु मंदिर के शिवलिंग के लिए धार्मिक आस्था है कि शिव के दर्शन से हर शिव भक्त लंबी उम्र पाने के साथ रोगमुक्त रहता है।
इस मंदिर तक पहुंचने के लिए सबसे करीबी स्थान बुरहानपुर है। जहां से लगभग २० किलोमीटर की दूरी पर असीरगढ़ किले में यह मंदिर स्थित है। यहां पहुंचना मन में अध्यात्म और रोमांच पैदा करता है। यह देश के सभी प्रमुख शहरों से आवागमन के साधनों से जुड़ा है। रेल मार्ग द्वारा खंडवा स्टेशन पहुंचकर भी यहां पहुंचा जा सकता है।
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रहस्यों से भरपूर है असीरगढ़ का किला...
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असीरगढ़ क़िला बुरहानपुर से लगभग 20 किमी. की दूरी पर उत्तर दिशा में सतपुड़ा पहाड़ियों
के शिखर पर समुद्र सतह से 750 फ़ुट की ऊँचाई पर स्थित है। यह क़िला आज भी
अपने वैभवशाली अतीत की गुणगाथा का गान मुक्त कंठ से कर रहा है। इसकी
तत्कालीन अपराजेयता स्वयं सिद्ध होती है। इसकी गणना विश्व विख्यात उन गिने
चुने क़िलों में होती है, जो दुर्भेद और अजेय, माने जाते थे।
इतिहास
इतिहासकारों ने इसका 'बाब-ए-दक्खन' (दक्षिण द्वार) और 'कलोद-ए-दक्खन'
(दक्षिण की कुँजी) के नाम से उल्लेख किया है, क्योंकि इस क़िले पर विजय
प्राप्त करने के पश्चात दक्षिण का द्वार खुल जाता था, और विजेता का
सम्पूर्ण ख़ानदेश
क्षेत्र पर अधिपत्य स्थापित हो जाता था। इस क़िले की स्थापना कब और किसने
की यह विश्वास से नहीं कहा जा सकता। इतिहासकार स्पष्ट एवं सही राय रखने में
विवश रहे हैं। कुछ इतिहासकार इस क़िले का महाभारत के वीर योद्धा गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा की अमरत्व की गाथा से संबंधित करते हुए उनकी पूजा
स्थली बताते हैं। बुरहानपुर के 'गुप्तेश्वर महादेव मंदिर' के समीप से एक
सुंदर सुरंग है, जो असीरगढ़ तक लंबी है। ऐसा कहा जाता है कि, पर्वों के दिन
अश्वत्थामा ताप्ती नदी में स्नान करने आते हैं, और बाद में 'गुप्तेश्वर' की पूजा कर अपने स्थान पर लौट जाते हैं।
क़िले का नामकरण
कुछ इतिहासकार इसे रामायण
काल का बताते हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार 'मोहम्मद कासिम' के कथनानुसार इसका
'आशा अहीर' नामक एक व्यक्ति ने निर्माण कराया था। आशा अहीर के पास हज़ारों
की संख्या में पशु थे। उनकी सुरक्षा हेतु ऐसे ही सुरक्षित स्थान की
आवश्यकता थी। कहते हैं, वह इस स्थान पर आठवीं शताब्दी में आया था। इस समय
यहाँ हज़रत नोमान चिश्ती नाम के एक तेजस्वी सूफ़ी संत निवास करते थे। आशा
अहीर उनके पास आदरपूर्वक उपस्थित हुआ और निवेदन किया कि उसके व परिवार की
सुरक्षा के लिए भगवान से प्रार्थना करें, ताकि वह क़िले पर अपने परिवार
सहित रह सके। इस तरह वह हज़रत नोमान की आज्ञा एवं आशीर्वाद पाकर, इस स्थान
पर ईट मिट्टी, चूना और पत्थरों की दीवार बनाकर रहने लगा। इस तरह आशा अहीर
के नाम से यह क़िला असीरगढ़ नाम से प्रसिद्ध हो गया।
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